शुक्रवार, जुलाई 20, 2007

था तुम्हें मैंने रुलाया

हा, तुम्हारी मृदुल इच्छा!
हाय, मेरी कटु अनिच्छा!
था बहुत माँगा ना तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!

स्नेह का वह कण तरल था,
मधु न था, न सुधा-गरल था,
एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुमको न पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!

बूँद कल की आज सागर,
सोचता हूँ बैठ तट पर -
क्यों अभी तक डूब इसमें कर न अपना अंत पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!

- बच्चन

2 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी12:10 am

    I was glad to see some of the hindi poems that I enjoyed reading in school. Reminded me of my good old school days!!Great job. Kudos to u !!

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