tag:blogger.com,1999:blog-347892902024-03-07T13:42:00.761+05:30मेरी प्रिय हिंदी रचनाएँMy Favourite Hindi Literature CollectionT.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.comBlogger115125tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-11197704375540724412015-03-11T22:03:00.000+05:302015-03-11T22:12:16.350+05:30प्रकृति से सानिध्य<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
प्रकृति जैसे यहाँ आकर बस सी गयी है<br />
और उसके हैं अंगणित सुन्दर स्वरुप।<br />
कभी पहाड़ों पर उगते ये पीले फूल,<br />
तो कभी पर्वतों पर छाये बादलों के साये,<br />
जो रोकते हैं धूप।<br />
<br />
कभी कल कल करती सरिता,<br />
या कभी गगन चुम्बी इमारतों से ये पेड़<br />
कभी सीली ठंडी हवा<br />
तो कभी हरियाली चरती हुई भेड।<br />
<br />
यहीं आकर मिलता है<br />
अनुभव धरती के स्वर्ग का<br />
आकर यहीं होता है आभास<br />
ईश्वर के अस्तित्व का<br />
<br />
ये खिलते फूल, फलते तरुवर और झूमती लताएँ<br />
बांधते हैं ऐसा समाँ<br />
कि महक उठता है मन<br />
जैसे महके है मौसम<br />
इस सुन्दर प्रदेश का।<br />
<br />
~सुदीप दुबे<br />
<br />
यह कविता मैंने गुजरात में सापुतारा नामक पर्वतीय प्रदेश की सुन्दरता से प्रभावित होकर लिखी थी।<br />
<br /></div>
T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-2819409171626131202010-10-22T23:41:00.002+05:302010-10-22T23:44:33.773+05:30सर फ़रोशी की तमन्नासर फ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है<br />देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है।<br /><span></span><br />करता नहीं क्यूं दूसरा कुछ बात चीत<br />देखता हूं मैं जिसे वो चुप तिरी मेहफ़िल में है।<br /><br />ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार<br />अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है।<br /><br />वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ<br />हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है।<br /><span></span><br />खींच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उम्मीद<br />आशिक़ों का आज झमघट कूचा-ए-क़ातिल में है।<br /><br />है लिए हथियार दुश्मन ताक़ में बैठा उधर<br />और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर<br />खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है।<br /><br />हाथ जिन में हो जुनून कटते नहीं तलवार से<br />सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से<br />और भड़केगा जो शोला सा हमारे दिल में है।<br /><br />हम तो घर से निकले ही थे बांध कर सर पे क़फ़न<br />जान हथेली पर लिए लो बढ चले हैं ये क़दम<br />ज़िंदगी तो अपनी मेहमाँ मौत की महफ़िल में है।<br /><br />दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इंक़िलाब<br />होश दुशमन के उड़ा देंगे हमें रोको ना आज<br />दूर रह पाए जो हम से दम कहां मंज़िल में है।<br /><br />यूं खड़ा मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार बार<br />क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है।<br /><br /><strong>- रामप्रसाद बिस्मिल</strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-4986244843641949072010-10-22T11:59:00.002+05:302010-11-17T14:15:06.860+05:30बिन्दा<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;"></span><br />
<div class="post-body entry-content"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">भीत-सी आंखोंवाली उस दुर्बल</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर दृष्टि डाल कर मैंने सामने बैठे सज्जन को</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">उनका भरा हुआ प्रवेशपत्र लौटाते हुए कहा-</span><span style="font-size: 100%;">'</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">आपने आयु ठीक नहीं भरी है। ठीक कर दीजिए</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी।</span><span style="font-size: 100%;">' '</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">नहीं यह तो गत आषाढ़ में चौदह की हो चुकी</span><span style="font-size: 100%;">' </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">सुनकर मैने कुछ विस्मित भाव से अपनी उस भावी विद्यार्थिनी को अच्छी तरह देखा</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">जो नौ वर्षीय बालिका की सरल चंचलता से शून्य थी और चौदह वर्षीय किशोरी के सलज्ज उत्साह से अपरिचित।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">उसकी माता के संबंध में मेरी जिज्ञासा स्वगत न रहकर स्पष्ट प्रश्न ही बन गयी होगी</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">क्योंकि दूसरी ओर से कुछ कुंठित उत्तर मिला- मेरी दूसरी पत्नी है</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">और आप तो जानती ही होंगी</span><span style="font-size: 100%;"> ' </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">और उनके वाक्य को अधसुना ही छोड़कर मेरा मन स्मृतियों की चित्रशाला में दो युगों से अधिक समय की भूल के नीचे दबे बिन्दा या विन्ध्येश्वरी के धुंधले चित्र पर उँगली रखकर कहने लगा --ज्ञात है</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">अवश्य ज्ञात है।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">बिन्दा मेरी उस समय की बाल्यसखी थी</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">जब मैंने जीवन और मृत्यु का अमिट अन्तर जान नहीं पाया था। अपने नाना और दादी के स्वर्ग-गमन की चर्चा सुनकर मैं बहुत गम्भीर मुख और आश्वस्त भाव से घर भर को सूचना दे चुकी थी कि जब मेरा सिर कपड़े रखने की आल्मारी को छूने लगेगा</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">तब मैं निश्चय ही एक बार उनको देखने जाऊंगी। न मेरे इस पुण्य संकल्प का विरोध करने की किसी को इच्छा हुई और न मैंने एक बार मरकर कभी न लौट सकने का नियम जाना। ऐसी दशा में</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">छोटे-छोटे असमर्थ बच्चों को छोड़कर मर जाने वाली मां की कल्पना मेरी बुद्धि में कहां ठहरती। मेरा संसार का अनुभव भी बहुत संक्षिप्त-सा था। अज्ञानावस्था से मेरा साथ देने वाली सफेद कुत्ती -सीढ़ियों के नीचे वाली अंधेरी कोठरी में आंख मूंदे पड़े रहने वाले बच्चों की इतनी सतर्क पहरेदार हो उठती थी कि उसका गुर्राना मेरी सारी ममता-भरी मैत्री पर पानी फेर देता था। भूरी पूसी भी अपने चूहे जैसे नि:सहाय बच्चों को तीखे पैने दाँतों में ऐसी कोमलता से दबाकर कभी लाती</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">कभी ले जाती थी कि उनके कहीं एक दॉत भी न चुभ पाता था। ऊपर की छत के कोने पर कबूतरों का और बड़ी तस्वीर के पीछे गौरैया का जो भी घोंसला था</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">उसमें खुली हुई छोटी- छोटी चोचों और उनमें सावधानी से भरे जाते दोनों और कीड़े-मकोड़ों को भी मैं अनेक बार देख चुकी थी।बछिया को हटाते हुए ही रँभा-रँभा कर घर भर को यह दु:खद समाचार सुनाने वाली अपनी श्यामा गाय की व्याकुलता भी मुझसे छिपी न थी। एक बच्चे को कन्धे से चिपकाये और एक उँगली पकड़े हुए जो भिखरिन द्धार-द्धार फिरती थी</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">वह भी तो बच्चों के लिए ही कुछ माँगती रहती थी। अत: मैंने निश्चित रूप से समझ लिया था कि संसार का सारा कारबार बच्चों को खिलाने-पिलाने</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">सुलाने आदि के लिए ही हो रहा है और इस महत्वपूर्ण कर्तव्य में भूल न होने देने का काम माँ नामधारी जीवों को सौंपा गया है।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">और बिन्दा के भी तो माँ थी जिन्हें हम पंडिताइन चाची और बिन्दा नयी अम्मा कहती थी। वे अपनी गोरी</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">मोटी देह को रंगीन साड़ी से सजे-कसे</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">चारपाई पर बैठ कर फूले गाल और चिपटी-सी नाक के दोनों ओर नीले कांच के बटन सी चमकती हुई ऑखों से युक्त मोहन को तेल मलती रहती थी। उनकी विशेष कारीगरी से संवारी पाटियों के बीच में लाल स्याही की मोटी लकीर-सा सिन्दूर उनींदी सी ऑंखों में काले डोरे के समान लगने वाला काजल</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">चमकीले कर्णफूल</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">गले की माला</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">नगदार रंग-बिरंगी चूड़ियाँ और घुंघरूदार बिछुए मुझे बहुत भाते थे</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">क्योंकि यह सब अलंकार उन्हें गुड़िया की समानता दे देते थे।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">यह सब तो ठीक था</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पर उनका व्यवहार विचित्र -सा जान पड़ता था। सर्दी के दिनों में जब हमें धूप निकलने पर जगाया जाता था</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">गर्म पानी से हाथ मुंह धुलाकर मोजे</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">जूते और ऊनी कपड़ों से सजाया जाता था और मना-मनाकर गुनगुना दूध पिलाया जाता था</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">तब पड़ोस के घर में पंडिताइन चाची का स्वर उच्च- से उच्चतर होता रहता था। यदि उस गर्जन-तर्जन का कोई अर्थ समझ में न आता</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">तो मैं उसे श्याम के रॅभाने के समान स्नेह का प्रदर्शन भी समझ सकती थी</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">परन्तु उसकी शब्दावली परिचित होने के कारण ही कुछ उलझन पैदा करने वाली थी।</span><span style="font-size: 100%;"> '</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">उठती है या आऊं</span><span style="font-size: 100%;">', '</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">बैल के-से दीदे क्या निकाल रही है</span><span style="font-size: 100%;">', </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">मोहन का दूध कब गर्म होगा</span><span style="font-size: 100%;"> ',' </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">अभागी मरती भी नहीं</span><span style="font-size: 100%;"> ' </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">आदि वाक्यों में जो कठोरता की धारा बहती रहती थी</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">उसे मेरा अबोध मन भी जान ही लेता था।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">कभी-कभी जब मै ऊपर की छत पर जाकर उस घर की कथा समझने का प्रयास करती</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">तब मुझे मैली धोती लपेटे हुए बिन्दा ही आंगन से चौके तक फिरकनी-सी नाचती दिखाई देती। उसका कभी झाडू देना</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">कभी आग जलाना</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">कभी आंगन के नल से कलसी में पानी लाना</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">कभी नयी अम्मा को दूध का कटोरा देने जाना</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">मुझे बाजीगर के तमाशा जैसे लगता था</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">क्योंकि मेरे लिए तो वे सब कार्य असम्भव-से थे। पर जब उस विस्मित कर देने वाले कौतुक की उपेक्षा कर पंडिताइन चाची का कठोर स्वर गूंजने लगता</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">जिसमें कभी-कभी पंडित जी की घुड़की का पुट भी रहता था</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">तब न जाने किस दु:ख की छाया मुझे घेरने लगती थी। जिसकी सुशीलता का उदाहरण देकर मेरे नटखटपन को रोका जाता था</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">वहीं बिन्दा घर में चुपके-चुपके कौन-सा नटखटपन करती रहती है</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">इसे बहुत प्रयत्न करके भी मैं न समझ पाती थी। मैं एक भी काम नहीं करती थी और रात-दिन ऊधम मचाती रहती</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पर मुझे तो माँ ने न मर जाने की आज्ञा दी और न ऑखें निकाल लेने का भय दिखाया। एक बार मैंने पूछा भी --</span><span style="font-size: 100%;"> ' </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">क्या पंडिताइन चाची तुमरी तरह नहीं है</span><span style="font-size: 100%;"> ?' </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">मां ने मेरी बात का अर्थ कितना समझा यह तो पता नहीं</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">उनके संक्षिप्त</span><span style="font-size: 100%;"> '</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">हैं</span><span style="font-size: 100%;">' </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">से न बिन्दा की समस्या का समाधान हो सका और न मेरी उलझन सुलझ पायी।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">बिन्दा मुझसे कुछ बड़ी ही रही होगी</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">परन्तु उसका नाटापन देखकर ऐसा लगता था</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">मानों किसी ने ऊपर से दबाकर उसे कुछ छोटा कर दिया हो। दो पैसों में आने वाली खँजड़ी के ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली के समान पतले चर्म से मढ़े और भीतर की हरी-हरी नसों की झलक देने वाले उसके दुबले हाथ-पैर न जाने किस अज्ञात भय से अवसन्न रहते थे। कहीं से कुछ आहट होते ही उसका विचित्र रूप से चौंक पड़ना और पंडिताइन चाची का स्वर कान में पड़ते ही उसके सारे शरीर का थरथरा उठना</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">मेरे विस्मय को बढ़ा ही नहीं देता था</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">प्रत्युत् उसे भय में बदल देता था। और बिन्दा की आंखें तो मुझे पिंजड़े में बन्द चिड़िया की याद दिलाती थीं।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">एक बार जब दो-तीन करके तारे गिनते-गिनते उसने एक चमकीले तारे की ओर उँगली उठाकर कहा-</span><span style="font-size: 100%;"> '</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">वह रही मेरी अम्मा</span><span style="font-size: 100%;">' </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">तब तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या सब-की एक अम्मा तारों में होती है ओर एक घर में</span><span style="font-size: 100%;"> ? </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पूछने पर बिन्दा ने अपने ज्ञान-कोष में से कुछ कण मुझे दिये और तब मैंने समझा कि जिस अम्मा को ईश्वर बुला लेता है</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">वह तारा बनकर ऊपर से बच्चों को देखती रहती है और जो बहुत सजधज से घर में आती है</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">वह बिन्दा की नयी अम्मा जैसी होती है। मेरी बुद्धि सहज ही पराजय स्वीकार करना नहीं जानती</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">इसी से मैंने सोचकर कहा-</span><span style="font-size: 100%;"> '</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">तुम नयी अम्मा को पुरानी अम्मा क्यों नहीं कहती</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">फिर वे न नयी रहेंगी और न डॉटेंगी।</span><span style="font-size: 100%;">' </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">बिन्दा को मेरा उपाय कुछ जॅचा नहीं</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">क्योंकि वह तो अपनी पुरानी अम्मा को खुली पालकी में लेटकर जाते और नयी को बन्द पालकी में बैठकर आते देख चुकी थी</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">अत: किसी को भी पदच्युत करना उसके लिए कठिन था।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पर उसकी कथा से मेरा मन तो सचमुच आकुल हो उठा</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">अत: उसी रात को मैंने माँ से बहुत अनुनय पूर्वक कहा-</span><span style="font-size: 100%;"> '</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">तुम कभी तारा न बनना</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">चाहे भगवान कितना ही चमकीला तारा बनावें।</span><span style="font-size: 100%;">' </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">माँ बेचारी मेरी विचित्र मुद्रा पर विस्मित होकर कुछ बोल भी न पायी थी कि मैंने अकुंठित भाव से अपना आशय प्रकट कर दिया -</span><span style="font-size: 100%;"> '</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">नहीं तो पंडिताइन चाची जैसी नयी अम्मा पालकी में बैठकर आ जायेगी और फिर मेरा दूध</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">बिस्कुट</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">जलेबी सब बन्द हो जायगी - और मुझे बिन्दा बनना पड़ेगा।</span><span style="font-size: 100%;">' </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">माँ का उत्तर तो मुझे स्मरण नहीं</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पर इतना याद है कि उस रात उसकी धोती का छोर मुट्ठी में दबाकर ही मैं सो पायी थी।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">बिन्दा के अपराध तो मेरे लिए अज्ञात थे</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पर पंडिताइन चाची के न्यायालय से मिलने वाले दण्ड के सब रूपों से मैं परिचित हो चुकी थी। गर्मी की दोपहर में मैंने बिन्दा को ऑगन की जलती धरती पर बार-बार पैर उठाते ओर रखते हुए घंटो खड़े देखा था</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">चौके के खम्भे से दिन-दिन भर बॅधा पाया था और भूश से मुरझाये मुख के साथ पहरों नयी अम्मा ओर खटोले में सोते मोहन पर पंखा झलते देखा था। उसे अपराध का ही नहीं</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">अपराध के अभाव का भी दण्ड सहना पड़ता था</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">इसी से पंडित जी की थाली में पंडिताइन चाची का ही काला मोटा और घुँघराला बाल निकलने पर भी दण्ड बिन्दा को मिला। उसके छोटे-छोटे हाथों से धुल न सकने वाले</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">उलझे</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">तेलहीन बाल भी अपने स्वाभाविक भूरेपन ओर कोमलता के कारण मुझे बड़े अच्छे लगते थे।जब पंडिताइन चाची की कैंची ने उन्हें कूड़े के ढेर पर</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">बिखरा कर उनके स्थान को बिल्ली की काली धारियों जैसी रेखाओं से भर दिया तो मुझे रूलाई आने लगी</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पर बिन्दा ऐसे बैठी रही</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">मानों सिर और बाल दोनों नयी अम्मा के ही हों।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">और एक दिन याद आता है। चूल्हे पर चढ़ाया दूध उफना जा रहा था। बिन्दा ने नन्हें-नन्हें हाथों से दूध की पतीली उतारी अवश्य</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पर वह उसकी उंगलियों से छूट कर गिर पड़ी। खौलते दूध से जले पैरों के साथ दरवाजे पर खड़ी बिन्दा का रोना देख मैं तो हतबुद्धि सी हो रही। पंडिताइन चाची से कह कर वह दवा क्यों नहीं लगवा लेती</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">यह समझाना मेरे लिए कठिन था। उस पर जब बिन्दा मेरा हाथ अपने जोर से धड़कते हुए ह्रदय से लगाकर कहीं छिपा देने की आवश्यकता बताने लगी</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">तब तो मेरे लिए सब कुछ रहस्मय हो उठा।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">उसे मै अपने घर में खींच लाई अवश्य</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पर न ऊपर के खण्ड में मॉ के पास ले जा सकी और न छिपाने का स्थान खोज सकी। इतने में दीवारें लाँघ कर आने वाले</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पंडिताइन चाची के उग्र स्वर ने भय से हमारी दिशाएँ रूंध दीं</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">इसी से हड़बडाहट में हम दोनों उस कोठरी में जा घुसीं</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">जिसमें गाय के लिए घास भरी जाती थी। मुझे तो घास की पत्तियाँ भी चुभ रही थीं</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">कोठरी का अंधकार भी कष्ट दे रहा था</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पर बिन्दा अपने जले पैरों को घास में छिपाये और दोनों ठंडे हाथें से मेरा हाथ दबाये ऐसे बैठी थी</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">मानों घास का चुभता हुआ ढेर रेशमी बिछोना बन गया हो।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">मैं तो शायद सो गई थी</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">क्योंकि जब घास निकालने के लिए आया हुआ गोपी इस अभूतपूर्व दृश्य की घोषणा करने के लिए कोलाहल मचाने लगा</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">तब मैंने ऑंखें मलते हुए पूछा</span><span style="font-size: 100%;"> ' </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">क्या सबेरा हो गया</span><span style="font-size: 100%;"> ?' </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">मॉ ने बिन्दा के पैरों पर तिल का तेल और चूने का पानी लगाकर जब अपने विशेष सन्देशवाहक के साथ उसे घर भिजवा दिया</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">तब उसकी क्या दशा हुई</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">यह बताना कठिन है</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पर इतना तो मैं जानती हूँ कि पंडिताइन चाची के न्याय विधान में न क्षमता का स्थान था</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">न अपील का अधिकार।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">फिर कुछ दिनों तक मैंने बिन्दा को घर-ऑगन में काम करते नहीं देखा। उसके घर जाने से माँ ने मुझे रोक दिया था</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पर वे प्राय: कुछ अंगूर और सेब लेकर वहॉ हो आती थीं। बहुत खुशामद करने पर रूकिया ने बताया कि उस घर में महारानी आई हैं।</span><span style="font-size: 100%;"> ' </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">क्या वे मुझसे नहीं मिल सकती</span><span style="font-size: 100%;">' </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पूछने पर वह मुंह में कपड़ा ठूंस कर हंसी रोकने लगी। जब मेरे मन का कोई समाधान न हो सका</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">तब मै एक दिन दोपहर को सभी की ऑख बचाकर बिन्दा के घर पहुँची। नीचे के सुनसान खण्ड में बिन्दा अकेली एक खाट पर पड़ी थी। ऑंखें गङ्ढे में धँस गयी थीं</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">मुख दानों से भर कर न जाने कैसा हो गया था और मैली-सी सादर के नीचे छिपा शरीर बिछौने से भिन्न ही नहीं जान पड़ता था। डाक्टर</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">दवा की शीशियॉ</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">सिर पर हाथ फेरती हुई मॉ और बिछौने के चारों चक्कर काटते हुए बाबूजी ने बिना भी बीमारी का अस्तित्व है</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">यह मैं नहीं जानती थी</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">इसी से उस अकेली बिन्दा के पास खड़ी होकर मैं चकित-सी चारों ओर देखती रह गयी। बिन्दा ने ही कुछ संकेत और कुछ अस्पष्ट शब्दों में बताया कि नयी अम्मा मोहन के साथ ऊपर खण्ड में रहती हैं</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">शायद चेचक के डर से। सबेरे-शाम बरौनी आकर उसका काम कर जाती है।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">फिर तो बिन्दा को दुखना सम्भव न हो सका</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">क्योंकि मेरे इस आज्ञा- उल्लंघन से मां बहुत चिन्तित हो उठी थीं।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">एक दिन सबेरे ही रूकिया ने उनसे न जाने क्या कहा कि वे रामायण बन्द कर बार-बार ऑंखें पोंछती हुई बिन्दा के घर चल दीं। जाते-जाते वे मुझे बाहर न निकलने का आदेश देना नहीं भूली थीं</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">इसी से इधर-उधर से झॉककर देखना आवश्यक हो गया। रूकिया मेरे लिए त्रिकालदर्शी से कम न थी</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">परन्तु वह विशेष अनुनय-विनय के बिना कुछ बताती ही नहीं थी और उससे अनुनय-विनय करना मेरे आत्म -सम्मान के विरूद्ध पड़ता था। अत: खिड़की से झॉककर मैं बिन्दा के दरवाजे पर जमा हुए आदमियों के अतिरिक्त और कुछ न देख सकी और इस प्रकार की भड़ से विवाह और बारात का जो संबंध है</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">उसे मैं जानती थी। तब क्या उस घर में विवाह हो रहा है</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">और हो रहा है तो किसका</span><span style="font-size: 100%;">? </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">आदि प्रश्न मेरी बुद्धि की परीक्षा लेने लगे। पंडित जी का विवाह तो तब होगा</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">जब दूसरी पंडिताइन चाची भी मर कर तारा बन जायेंगी और बैठ न सकने वाले मोहन का विवाह संभव नहीं</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">यही सोच-विचार कर मैं इस परिणाम तक पहु।ची कि बिन्दा का विवाह हो रहा है ओर उसने मुझे बुलाया तक नहीं। इस अचिन्त्य अपमान से आहत मेरा मन सब गुड़ियों को साक्षी बनाकर बिन्दा को किसी भी शुभ कार्य में न बुलाने की प्रतिज्ञा करने लगा।</span><span lang="HI" style="font-size: 100%;"> </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">कई दिन तक बिन्दा के घर झॉक-झाककर जब मैंने मॉ से उसके ससुराल से लौटने के संबंध में प्रश्न किया</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">तब पता चला कि वह तो अपनी आकाश-वासिनी अम्मा के पास चली गयी। उस दिन से मैं प्राय: चमकीले तारे के आस-पास फैले छोटे तारों में बिन्दा को ढूंढ़ती रहती</span><span style="font-size: 100%;">; </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पर इतनी दूर से पहचानना क्या संभव था</span><span style="font-size: 100%;">? </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">तब से कितना समय बीत चुका है</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">पर बिन्दा ओर उसकी नयी अम्मा की कहानी शेष नहीं हुई। कभी हो सकेगी या नहीं</span><span style="font-size: 100%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 100%;">इसे कौन बता सकता है</span><span style="font-size: 100%;"> ?</span> <br />
<div class="MsoNormal"><span style="font-size: 100%; line-height: 115%;"></span></div><div style="clear: both;"><strong>- महादेवी वर्मा के संस्मरण संग्रह 'अतीत के चलचित्र' से उद्घृत</strong></div><div style="clear: both;"></div><div style="clear: both;"></div></div>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-41272156573562829192010-09-09T16:02:00.001+05:302010-09-09T16:04:16.366+05:30भगवानभगवान हर जगह है<br />इसलिये जब भी जी चाहता है<br />मैं उन्हे मुट्ठी में कर लेता हूँ<br />तुम भी कर सकते हो<br />हमारे तुम्हारे भगवान में<br />कौन महान है<br />निर्भर करता है<br />किसकी मुट्ठी बलवान है।<br /><br />- विश्वनाथ प्रताप सिंहT.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-22806466027516671082010-09-09T15:59:00.002+05:302010-09-09T16:01:51.812+05:30ऊँचाईऊँचे पहाड़ पर,<br />पेड़ नहीं लगते,<br />पौधे नहीं उगते,<br />न घास ही जमती है।<br /><br />जमती है सिर्फ बर्फ,<br />जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,<br />मौत की तरह ठंडी होती है।<br />खेलती, खिल-खिलाती नदी,<br />जिसका रूप धारण कर,<br />अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।<br /><br />ऐसी ऊँचाई,<br />जिसका परस<br />पानी को पत्थर कर दे,<br />ऐसी ऊँचाई<br />जिसका दरस हीन भाव भर दे,<br />अभिनंदन की अधिकारी है,<br />आरोहियों के लिये आमंत्रण है,<br />उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,<br /><br />किन्तु कोई गौरैया,<br />वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,<br />ना कोई थका-मांदा बटोही,<br />उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।<br /><span class=""></span><br />सच्चाई यह है कि<br />केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,<br />सबसे अलग-थलग,<br />परिवेश से पृथक,<br />अपनों से कटा-बँटा,<br />शून्य में अकेला खड़ा होना,<br />पहाड़ की महानता नहीं,<br />मजबूरी है।<br /><span class=""></span><br />ऊँचाई और गहराई में<br />आकाश-पाताल की दूरी है।<br /><span class=""></span><br />जो जितना ऊँचा,<br />उतना एकाकी होता है,<br />हर भार को स्वयं ढोता है,<br />चेहरे पर मुस्कानें चिपका,<br />मन ही मन रोता है।<br /><br /><span class=""></span>ज़रूरी यह है कि<br />ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,<br />जिससे मनुष्य,<br />ठूँठ सा खड़ा न रहे,<br />औरों से घुले-मिले,<br />किसी को साथ ले,<br />किसी के संग चले।<br /><br />भीड़ में खो जाना,<br />यादों में डूब जाना,<br />स्वयं को भूल जाना,<br />अस्तित्व को अर्थ,<br />जीवन को सुगंध देता है।<br /><br />धरती को बौनों की नहीं,<br />ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।<br />इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,<br />नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,<br /><br />किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,<br />कि पाँव तले दूब ही न जमे,<br />कोई काँटा न चुभे,<br />कोई कली न खिले।<br />न वसंत हो, न पतझड़,<br />हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,<br />मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।<br /><br />मेरे प्रभु!<br />मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,<br />ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,<br />इतनी रुखाई कभी मत देना।<br /><br />- अटल बिहारी वाजपेयीT.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-52166447466147094062010-09-08T16:54:00.005+05:302010-09-08T17:07:09.702+05:30स्वागतम्स्वागतम् शुभ स्वागतम्<br />आनंद <span class="">मंगल मंगलम्</span><br />नित प्रियम् भारत भारतम्<br /><br />नित्य निरंतरता नवता<br />मानवता समता ममता<br />सारथि साथ मनोरथ का<br />जो अनिवार नहीं थमता<br />संकल्प अविजित अभिमतम्<br /><span class=""></span><br />आनंद मंगल मंगलम् <br />नित प्रियम् भारत भारतम्<br /><br />कुसुमित नई कामनाएँ<br />सुरभित नई साधनाएँ<br />मैत्री मति क्रीडांगन में<br />प्रमुदित बन्धु भावनाएँ<br />शाश्वत सुविकसित इति शुभम<br /><span class=""></span><br />आनंद मंगल मंगलम्<br /><span class=""></span>नित प्रियम् भारत भारतम्<br /><br /><strong>- पंडित नरेन्द्र शर्मा</strong><br /><br />This song was selected as the Anthem for Aisad Games in 1982.<br />Quite a contrast to the jarring Anthem for Commonwealth Games 2010.T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-37035000829409387592010-06-11T11:38:00.002+05:302010-06-11T11:51:27.495+05:30आए महंत वसंतआए महंत वसंत<br />मखमल के झूल पड़े हाथी-सा टीला<br />बैठे किंशुक छत्र लगा बाँध पाग पीला<br />चंवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनंत<br />आए महंत वसंत<br /><br />श्रद्धानत तरुओं की अंजलि से झरे पात<br />कोंपल के मुँदे नयन थर-थर-थर पुलक गात<br />अगरु धूम लिए घूम रहे सुमन दिग-दिगंत<br />आए महंत वसंत<br /><br />खड़ खड़ खड़ताल बजा नाच रही बिसुध हवा<br />डाल डाल अलि पिक के गायन का बँधा समा<br />तरु तरु की ध्वजा उठी जय जय का है न अंत<br />आए महंत वसंत<br /><strong><br />- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना</strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-56125918796365569362010-06-11T11:18:00.003+05:302010-06-11T11:24:04.707+05:30कल और आजअभी कल तक<br />गालियाँ देते तुम्हें<br />हताश खेतिहर,<br />अभी कल तक<br />धूल में नहाते थे<br />गोरैयों के झुंड,<br />अभी कल तक<br />पथराई हुई थी<br />धनहर खेतों की माटी,<br />अभी कल तक<br />धरती की कोख में<br />दुबके पेड़ थे मेंढक,<br />अभी कल तक<br />उदास और बदरंग था आसमान!<br /><br />और आज<br />ऊपर-ही-ऊपर तन गए हैं<br />तम्हारे तंबू,<br />और आज<br />छमका रही है पावस रानी<br />बूँदा-बूँदियों की अपनी पायल,<br />और आज<br />चालू हो गई है<br />झींगुरो की शहनाई अविराम,<br />और आज<br />ज़ोरों से कूक पड़े<br />नाचते थिरकते मोर,<br />और आज<br />आ गई वापस जान<br />दूब की झुलसी शिराओं के अंदर,<br />और आज विदा हुआ चुपचाप ग्रीष्म<br />समेटकर अपने लाव-लश्कर।<br /><br /><strong>- नागार्जुन</strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-52524529041470060782010-02-10T19:41:00.002+05:302010-02-10T19:52:10.105+05:30Sunshine AwardI am delighted to receive the "Sunshine Award" from Amrita and Nimisha who are the owners of the worderful blog - <a href="http://craftideasforall.blogspot.com/">http://craftideasforall.blogspot.com/</a><br />The Sunshine Award is awarded to bloggers whose positivity & creativity inspires others in the blog world. Am glad to know that my blog has touched the lives of these two lovely ladies in some way. Thanks Amrita and Nimisha for nominating my blog.<br /><br />The rules for accepting this award are:-<br />Put the logo on your blog or within your post.<br />Pass the award onto 12 bloggers.<br />Link the nominees within your post.<br />Let the nominees know they have received this award by commenting on their blog.<br />Share the love and link to the person from whom you received this award.<br /><br />Though I personally do not follow any blog there is <strong>one</strong> which I think has inspired me a lot.<br />I nominate <a href="http://adoseofneeraj.blogspot.com/">http://adoseofneeraj.blogspot.com/</a> for this award. Follow the link to get to know more about this person, Neeraj Desai, who is no more with us. Though I never met Neeraj, but I feel like I have always known him. I also won't be letting the blog-owner know that I have nominated the blog for an award, lest it may dilute the very purpose of the blog.T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-86375404183449242162009-09-03T13:01:00.003+05:302009-09-03T13:05:20.291+05:30प्रेमहै कौन सा वह तत्व, जो सारे भुवन में व्याप्त है,<br />ब्रह्माण्ड पूरा भी नहीं जिसके लिये पर्याप्त है?<br />है कौन सी वह शक्ति, क्यों जी! कौन सा वह भेद है?<br />बस ध्यान ही जिसका मिटाता आपका सब शोक है,<br />बिछुड़े हुओं का हृदय कैसे एक रहता है, अहो!<br />ये कौन से आधार के बल कष्ट सहते हैं, कहो?<br />क्या क्लेश? कैसा दुःख? सब को धैर्य से वे सह रहे,<br />है डूबने का भय न कुछ, आनन्द में वे रह रहे।<br />वह प्रेम है<br /><br />क्या हेतु, जो मकरंद पर हैं भ्रमर मोहित हो रहे?<br />क्यों भूल अपने को रहे, क्यों सभी सुधि-बुधि खो रहे?<br />किस ज्योति पर निश्शंक हृदय पतंग लालायित हुए?<br />जाते शिखा की ओर, यों निज नाश हित प्रस्तु हुए?<br />वह प्रेम है<br /><br />आकाश में, जल में, हवा में, विपिन में, क्या बाग में,<br />घर में, हृदय में, गाँव में, तरु में तथैव तड़ाग में,<br />है कौन सी यह शक्ति, जो है एक सी रहती सदा,<br />जो है जुदा करके मिलाती, मिलाकर करती जुदा?<br />वह प्रेम है<br /><br />चैतन्य को जड़ कर दिया, जड़ को किया चैतन्य है,<br />बस प्रेम की अद्भुत, अलौकिक उस प्रभा को धन्य है,<br />क्यों, कौन सा है वह नियम, जिससे कि चालित है मही?<br />वह तो वही है, जो सदा ही दीखता है सब कहीं।<br />वह प्रेम है<br /><br />यह देखिए, घनघोर कैसा शोर आज मचा रहा।<br />सब प्राणियों के मत्त-मनो-मयूर अहा! नचा रहा।<br />ये बूँद हैं, या क्या! कि जो यह है यहाँ बरसा रहा?<br />सारी मही को क्यों भला इस भाँति है हरषा रहा?<br />वह प्रेम है<br /><br />यह वायु चलती वेग से, ये देखिए तरुवर झुके,<br />हैं आज अपनी पत्तियों में हर्ष से जाते लुके।<br />क्यों शोर करती है नदी, हो भीत पारावर से!<br />वह जा रही उस ओर क्यों? एकान्त सारी धार से।<br />वह प्रेम है<br /><br />यह देखिए, अरविन्द से शिशुवृंद कैसे सो रहे,<br />है नेत्र माता के इन्हें लख तृप्त कैसे हो रहे।<br />क्यों खेलना, सोना, रुदन करना, विहँसना आदि सब,<br />देता अपरिमित हर्ष उसको, देखती वह इन्हें जब?<br />वह प्रेम है<br /><br />वह प्रेम है, वह प्रेम है, वह प्रेम है, वह प्रेम है<br />अचल जिसकी मूर्ति, हाँ-हाँ, अटल जिसका नेम है।<br />वह प्रेम है<br /><br /><strong>- माखनलाल चतुर्वेदी</strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-59492429451025543172009-09-03T12:59:00.001+05:302009-09-03T13:01:28.921+05:30जीवन की ढलने लगी सांझजीवन की ढलने लगी सांझ<br />उमर घट गई<br />डगर कट गई<br />जीवन की ढलने लगी सांझ।<br /><span class=""></span><br />बदले हैं अर्थ<br />शब्द हुए व्यर्थ<br />शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।<br /><br />सपनों में मीत<br />बिखरा संगीत<br />ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।<br />जीवन की ढलने लगी सांझ।<br /><br /><strong>- अटल बिहारी वाजपेयी</strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-25307373671432642612009-09-03T12:57:00.000+05:302009-09-03T12:59:08.152+05:30क़दम मिलाकर चलना होगाबाधाएँ आती हैं आएँ<br />घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,<br />पावों के नीचे अंगारे,<br />सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,<br />निज हाथों में हँसते-हँसते,<br />आग लगाकर जलना होगा।<br />क़दम मिलाकर चलना होगा<br /><br />हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,<br />अगर असंख्यक बलिदानों में,<br />उद्यानों में, वीरानों में,<br />अपमानों में, सम्मानों में,<br />उन्नत मस्तक, उभरा सीना,<br />पीड़ाओं में पलना होगा।<br />क़दम मिलाकर चलना होगा।<br /><br />उजियारे में, अंधकार में,<br />कल कहार में, बीच धार में,<br />घोर घृणा में, पूत प्यार में,<br />क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,<br />जीवन के शत-शत आकर्षक,<br />अरमानों को ढलना होगा।<br />क़दम मिलाकर चलना होगा।<br /><br />सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,<br />प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,<br />सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,<br />असफल, सफल समान मनोरथ,<br />सब कुछ देकर कुछ न मांगते,<br />पावस बनकर ढ़लना होगा।<br />क़दम मिलाकर चलना होगा।<br /><br />कुछ काँटों से सज्जित जीवन,<br />प्रखर प्यार से वंचित यौवन,<br />नीरवता से मुखरित मधुबन,<br />परहित अर्पित अपना तन-मन,<br />जीवन को शत-शत आहुति में,<br />जलना होगा, गलना होगा।<br />क़दम मिलाकर चलना होगा।<br /><br /><strong>- अटल बिहारी वाजपेयी</strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-22777758074178590482009-08-31T12:49:00.004+05:302009-08-31T13:07:29.451+05:30हम दीवानों की क्या हस्तीहम दीवानों की क्या हस्ती, <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3GiYPo31V94QkuPG9ygHxhyskBdV_60o4cov416ewaKhrOlRM4Ivw1gd7AOowOiH0aSwXqVz0HyIr7xHSPE5PkJq9J7mqgarg6uUWap3-q0SFi0LN-MBKDTCweUelPmalb3zNTw/s1600-h/group-silhouette.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5376028457124799330" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 320px; CURSOR: hand; HEIGHT: 179px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3GiYPo31V94QkuPG9ygHxhyskBdV_60o4cov416ewaKhrOlRM4Ivw1gd7AOowOiH0aSwXqVz0HyIr7xHSPE5PkJq9J7mqgarg6uUWap3-q0SFi0LN-MBKDTCweUelPmalb3zNTw/s320/group-silhouette.jpg" border="0" /></a><br />हम आज यहाँ कल वहां चले<br />मस्ती का आलम साथ चला,<br />हम धूल उडाते जहाँ चले<br /><br />आए बनकर उल्लास अभी<br />आँसू बनकर बह चले अभी,<br />सब कहते ही रह गए,<br />अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले?<br /><br />किस ओर चले? यह मत पूछो,<br />चलना है, बस इसलिए चले,<br />जग से उसका कुछ लिए चले,<br />जग को अपना कुछ दिए चले।<br /><br />दो बात कही, दो बात सुनी,<br />कुछ हँसे और फिर कुछ रोये,<br />छक कर सुख दुःख घूंटों को<br />हम एक भाव से पिए चले।<br /><br />हम भिखमंगों की दुनिया में<br />स्वछंद लुटा कर प्यार चले,<br />हम एक निशानी सी उर पर,<br />ले असफलता का भार चले<br /><br />हम मान रहित, अपमान रहित<br />जी भरकर खुलकर खेल चुके,<br />हम हँसते हँसते आज यहाँ<br />प्राणों की बाजी हार चले!<br /><br />हम भला बुरा सब भूल चुके,<br />नतमस्तक हो मुख मोड़ चले,<br />अभिशाप उठाकर होठों पर<br />वरदान दृगों से छोड़ चले<br /><br />अब अपना और पराया क्या?<br />आबाद रहे रुकने वाले!<br />हम स्वयं बंधे थे,<br />और स्वयं हम अपने बंधन तोड़ चले!<br /><br /><strong>- भगवतीचरण वर्मा</strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-38539702944430168952009-08-31T12:07:00.005+05:302009-08-31T12:35:35.290+05:30खूनी हस्ताक्षरवह ख़ून कहो किस मतलब का,<br />जिसमें उबाल का नाम नहीं<br />वह ख़ून कहो किस मतलब का,<br />आ सके देश के काम नहीं<br /><span class=""></span><br />वह ख़ून कहो किस मतलब का,<br />जिसमें जीवन न रवानी है<br />जो परवश होकर बहता है,<br />वह ख़ून नहीं है, पानी है<br /><br />उस दिन लोगों ने सही-सही,<br />ख़ूँ की क़ीमत पहचानी थी<br />जिस दिन सुभाष ने बर्मा में,<br />मांगी उनसे क़ुर्बानी थी<br /><br />बोले स्वतन्त्रता की ख़ातिर,<br />बलिदान तुम्हें करना होगा<br />तुम बहुत जी चुके हो जग में,<br />लेकिन आगे मरना होगा<br /><br />आज़ादी के चरणों में,<br />जो जयमाल चढ़ाई जाएगी<br />वह सुनो! तुम्हारे शीषों के,<br />फूलों से गूँथी जाएगी<br /><br />आज़ादी का संग्राम कहीं,<br />पैसे पर खेला जाता है<br />यह शीश कटाने का सौदा,<br />नंगे सर झेला जाता है<br /><br />आज़ादी का इतिहास कहीं,<br />काली स्याही लिख पाती है<br />इसको लिखने के लिए,<br />ख़ून की नदी बहाई जाती है<br /><br />यूँ कहते-कहते वक्ता की,<br />आँखों में ख़ून उतर आया<br />मुख रक्तवर्ण हो दमक उठा,<br />दमकी उनकी रक्तिम काया<br /><span class=""></span><br />आजानु बाँहु ऊँची करके,<br />वे बोले रक्त मुझे देना<br />उसके बदले में भारत की,<br />आज़ादी तुम मुझसे लेना<br /><br />हो गई सभा में उथल-पुथल,<br />सीने में दिल न समाते थे<br />स्वर इंक़लाब के नारों के,<br />कोसों तक छाए जाते थे<br /><br />‘हम देंगे-देंगे ख़ून’<br />शब्द बस यही सुनाई देते थे<br />रण में जाने को युवक<br />खड़े तैयार दिखाई देते थे<br /><br />बोले सुभाष- इस तरह नहीं<br />बातों से मतलब सरता है<br />लो यह काग़ज़, है कौन यहाँ<br />आकर हस्ताक्षर करता है<br /><br />इसको भरने वाले जन को,<br />सर्वस्व समर्पण करना है<br />अपना तन-मन-धन-जन-जीवन,<br />माता को अर्पण करना है<br /><br /><span class=""></span>पर यह साधारण पत्र नहीं,<br />आज़ादी का परवाना है<br />इस पर तुमको अपने तन का,<br />कुछ उज्ज्वल रक्त गिराना है<br /><br />वह आगे आए, जिसके तन में<br />ख़ून भारतीय बहता हो<br />वह आगे आए, जो अपने को<br />हिन्दुस्तानी कहता हो<br /><span class=""></span><br />वह आगे आए, जो इस पर<br />ख़ूनी हस्ताक्षर देता हो<br />मैं क़फ़न बढ़ाता हूँ वह आए<br />जो इसको हँसकर लेता हो<br /><br />सारी जनता हुंकार उठी<br />‘हम आते हैं, हम आते हैं’<br />माता के चरणों में यह लो,<br />हम अपना रक्त चढ़ाते हैं<br /><span class=""></span><br />साहस से बढ़े युवक उस दिन,<br />देखा बढ़ते ही आते थे<br />और चाकू, छुरी, कटारों से,<br />वे अपना रक्त गिराते थे<br /><br />फिर उसी रक्त की स्याही में,<br />वे अपनी क़लम डुबोते थे<br />आज़ादी के परवाने पर,<br /> हस्ताक्षर करते जाते थे<br /><br />उस दिन तारों ने देखा था,<br />हिन्दुस्तानी विश्वास नया<br />जब लिखा था रणवीरों ने,<br /> ख़ूँ से अपना इतिहास नया<br /><br /><strong>- गोपाल प्रसाद व्यास</strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-50249230198344717072009-02-16T10:54:00.002+05:302009-02-16T10:54:56.166+05:30पंद्रह अगस्त की पुकारपंद्रह अगस्त का दिन कहता -- <br />आज़ादी अभी अधूरी है।<br />सपने सच होने बाकी है, <br />रावी की शपथ न पूरी है।।<br /><br />जिनकी लाशों पर पग धर कर<br />आज़ादी भारत में आई।<br />वे अब तक हैं खानाबदोश <br />ग़म की काली बदली छाई।।<br /><br />कलकत्ते के फुटपाथों पर <br />जो आँधी-पानी सहते हैं।<br />उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के <br />बारे में क्या कहते हैं।।<br /><br />हिंदू के नाते उनका दु:ख<br />सुनते यदि तुम्हें लाज आती।<br />तो सीमा के उस पार चलो <br />सभ्यता जहाँ कुचली जाती।।<br /><br />इंसान जहाँ बेचा जाता, <br />ईमान ख़रीदा जाता है।<br />इस्लाम सिसकियाँ भरता है, <br />डालर मन में मुस्काता है।।<br /><br />भूखों को गोली नंगों को <br />हथियार पिन्हाए जाते हैं।<br />सूखे कंठों से जेहादी <br />नारे लगवाए जाते हैं।।<br /><br />लाहौर, कराची, ढाका पर <br />मातम की है काली छाया।<br />पख्तूनों पर, गिलगित पर है <br />ग़मगीन गुलामी का साया।।<br /><br />बस इसीलिए तो कहता हूँ <br />आज़ादी अभी अधूरी है।<br />कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? <br />थोड़े दिन की मजबूरी है।।<br /><br />दिन दूर नहीं खंडित भारत को <br />पुन: अखंड बनाएँगे।<br />गिलगित से गारो पर्वत तक <br />आज़ादी पर्व मनाएँगे।।<br /><br />उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से <br />कमर कसें बलिदान करें।<br />जो पाया उसमें खो न जाएँ, <br />जो खोया उसका ध्यान करें।।<br /><br /><strong>- अटल बिहारी वाजपेयी </strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-28826739102512155172009-02-16T10:52:00.000+05:302009-02-16T10:53:18.748+05:30एक बरस बीत गयाएक बरस बीत गया <br />झुलसाता जेठ मास<br />शरद चाँदनी उदास<br />सिसकी भरते सावन का<br />अंतर्घट रीत गया<br />एक बरस बीत गया<br /><br />सींकचों में सिमटा जग<br />किंतु विकल प्राण विहग<br />धरती से अंबर तक<br />गूँज मुक्ति गीत गया<br />एक बरस बीत गया<br /><br />पथ निहारते नयन<br />गिनते दिन पल छिन<br />लौट कभी आएगा<br />मन का जो मीत गया<br />एक बरस बीत गया<br /><br /><strong>-अटल बिहारी वाजपेयी </strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-67038449596720228062008-07-04T13:55:00.001+05:302008-07-04T13:57:19.181+05:30मेरा नया बचपनबार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।<br />गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥<br /><br />चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।<br />कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?<br /><br />ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?<br />बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥<br /><br />किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।<br />किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥<br /><br />रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।<br />बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥<br /><br />मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।<br />झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥<br /><br />दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।<br />धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥<br /><br />वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।<br />लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥<br /><br />लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।<br />तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥<br /><br />दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।<br />मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥<br /><br />मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।<br />अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥<br /><br />सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।<br />प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥<br /><br />माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।<br />आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥<br /><br />किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।<br />चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥<br /><br />आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।<br />व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥<br /><br />वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।<br />क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?<br /><br />मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।<br />नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥<br /><br />'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।<br />कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥<br /><br />पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।<br />मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥<br /><br />मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।<br />हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥<br /><br />पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।<br />उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥<br /><br />मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।<br />मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥<br /><br />जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।<br />भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥<br /><br /><strong>-सुभद्राकुमारी चौहान </strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-7906492179404913992008-06-24T14:55:00.001+05:302008-06-24T14:57:53.569+05:30काहे को ब्याहे बिदेसकाहे को ब्याहे बिदेस, अरे, लखिय बाबुल मोरे<br />काहे को ब्याहे बिदेस<br /><br />भैया को दियो बाबुल महले दो-महले<br />हमको दियो परदेस<br />अरे, लखिय बाबुल मोरे<br />काहे को ब्याहे बिदेस<br /><br />हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गैयाँ<br />जित हाँके हँक जैहें<br />अरे, लखिय बाबुल मोरे<br />काहे को ब्याहे बिदेस<br /><br />हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ<br />घर-घर माँगे हैं जैहें<br />अरे, लखिय बाबुल मोरे<br />काहे को ब्याहे बिदेस<br /><br />कोठे तले से पलकिया जो निकली<br />बीरन में छाए पछाड़<br />अरे, लखिय बाबुल मोरे<br />काहे को ब्याहे बिदेस<br /><br />हम तो हैं बाबुल तोरे पिंजरे की चिड़ियाँ<br />भोर भये उड़ जैहें<br />अरे, लखिय बाबुल मोरे<br />काहे को ब्याहे बिदेस<br /><br />तारों भरी मैनें गुड़िया जो छोडी़<br />छूटा सहेली का साथ<br />अरे, लखिय बाबुल मोरे<br />काहे को ब्याहे बिदेस<br /><br />डोली का पर्दा उठा के जो देखा<br />आया पिया का देस<br />अरे, लखिय बाबुल मोरे<br />काहे को ब्याहे बिदेस<br /><br />अरे, लखिय बाबुल मोरे<br />काहे को ब्याहे बिदेस<br />अरे, लखिय बाबुल मोरे<br /><br /><strong>- अमीर खुसरो</strong><br /><em>इस रचना के कुछ अंशो को हिन्दी फ़िल्म उमराओ जान के लिये जगजीत कौर ने ख़्य्याम के संगीत में गाया भी है</em>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-47535505622686015322008-06-24T14:47:00.000+05:302008-06-24T14:48:37.204+05:30मुक्ति की आकांक्षाचिडि़या को लाख समझाओ <br /><br />कि पिंजड़े के बाहर <br /><br />धरती बहुत बड़ी है, निर्मम है, <br /><br />वहॉं हवा में उन्हें <br /><br />अपने जिस्म की गंध तक नहीं मिलेगी। <br /><br />यूँ तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है, <br /><br />पर पानी के लिए भटकना है, <br /><br />यहॉं कटोरी में भरा जल गटकना है। <br /><br />बाहर दाने का टोटा है, <br /><br />यहॉं चुग्गा मोटा है। <br /><br />बाहर बहेलिए का डर है, <br /><br />यहॉं निर्द्वंद्व कंठ-स्वर है। <br /><br />फिर भी चिडि़या <br /><br />मुक्ति का गाना गाएगी, <br /><br />मारे जाने की आशंका से भरे होने पर भी, <br /><br />पिंजरे में जितना अंग निकल सकेगा, निकालेगी, <br /><br />हरसूँ ज़ोर लगाएगी <br /><br />और पिंजड़ा टूट जाने या खुल जाने पर उड़ जाएगी। <br /><br />-<strong>सर्वेश्वरदयाल सक्सेना</strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-13821749028018597532008-06-24T14:43:00.001+05:302008-06-24T14:45:07.108+05:30प्रियतमएक दिन विष्णुजी के पास गए नारद जी, <br /><br />पूछा, "मृत्युलोक में कौन है पुण्यश्यलोक <br /><br />भक्त तुम्हारा प्रधान?" <br /><br /><br />विष्णु जी ने कहा, "एक सज्जन किसान है <br /><br />प्राणों से भी प्रियतम।" <br /><br />"उसकी परीक्षा लूँगा", हँसे विष्णु सुनकर यह, <br /><br />कहा कि, "ले सकते हो।" <br /><br /><br />नारद जी चल दिए <br /><br />पहुँचे भक्त के यहॉं <br /><br />देखा, हल जोतकर आया वह दोपहर को, <br /><br />दरवाज़े पहुँचकर रामजी का नाम लिया, <br /><br />स्नान-भोजन करके <br /><br />फिर चला गया काम पर। <br /><br />शाम को आया दरवाज़े फिर नाम लिया, <br /><br />प्रात: काल चलते समय <br /><br />एक बार फिर उसने <br /><br />मधुर नाम स्मरण किया। <br /><br /><br />"बस केवल तीन बार?" <br /><br />नारद चकरा गए- <br /><br />किन्तु भगवान को किसान ही यह याद आया? <br /><br />गए विष्णुलोक <br /><br />बोले भगवान से <br /><br />"देखा किसान को <br /><br />दिन भर में तीन बार <br /><br />नाम उसने लिया है।" <br /><br /><br />बोले विष्णु, "नारद जी, <br /><br />आवश्यक दूसरा <br /><br />एक काम आया है <br /><br />तुम्हें छोड़कर काई <br /><br />और नहीं कर सकता। <br /><br />साधारण विषय यह। <br /><br />बाद को विवाद होगा, <br /><br />तब तक यह आवश्यक कार्य पूरा कीजिए <br /><br />तैल-पूर्ण पात्र यह <br /><br />लेकर प्रदक्षिणा कर आइए भूमंडल की <br /><br />ध्यान रहे सविशेष <br /><br />एक बूँद भी इससे <br /><br />तेल न गिरने पाए।" <br /><br /><br />लेकर चले नारद जी <br /><br />आज्ञा पर धृत-लक्ष्य <br /><br />एक बूँद तेल उस पात्र से गिरे नहीं। <br /><br />योगीराज जल्द ही <br /><br />विश्व-पर्यटन करके <br /><br />लौटे बैकुंठ को <br /><br />तेल एक बूँद भी उस पात्र से गिरा नहीं <br /><br />उल्लास मन में भरा था <br /><br />यह सोचकर तेल का रहस्य एक <br /><br />अवगत होगा नया। <br /><br />नारद को देखकर विष्णु भगवान ने <br /><br />बैठाया स्नेह से <br /><br />कहा, "यह उत्तर तुम्हारा यही आ गया <br /><br />बतलाओ, पात्र लेकर जाते समय कितनी बार <br /><br />नाम इष्ट का लिया?" <br /><br /><br />"एक बार भी नहीं।" <br /><br />शंकित हृदय से कहा नारद ने विष्णु से <br /><br />"काम तुम्हारा ही था <br /><br />ध्यान उसी से लगा रहा <br /><br />नाम फिर क्या लेता और?" <br /><br />विष्णु ने कहा, "नारद <br /><br />उस किसान का भी काम <br /><br />मेरा दिया हुया है। <br /><br />उत्तरदायित्व कई लादे हैं एक साथ <br /><br />सबको निभाता और <br /><br />काम करता हुआ <br /><br />नाम भी वह लेता है <br /><br />इसी से है प्रियतम।" <br /><br />नारद लज्जित हुए <br /><br />कहा, "यह सत्य है।" <br /><br /><br /><strong>-सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"</strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-89363050234746214172008-06-24T14:36:00.001+05:302008-06-24T14:37:35.251+05:30रसखान के दोहेप्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।<br />जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥<br /><br />कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।<br />अति सूधो टढ़ौ बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार॥<br /><br />काम क्रोध मद मोह भय, लोभ द्रोह मात्सर्य।<br />इन सबहीं ते प्रेम है, परे कहत मुनिवर्य॥<br /><br />बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।<br />सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥<br /><br />अति सूक्ष्म कोमल अतिहि, अति पतरौ अति दूर।<br />प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥<br /><br />प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।<br />जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान॥<br /><br />भले वृथा करि पचि मरौ, ज्ञान गरूर बढ़ाय।<br />बिना प्रेम फीको सबै, कोटिन कियो उपाय॥<br /><br />दंपति सुख अरु विषय रस, पूजा निष्ठा ध्यान।<br />इन हे परे बखानिये, सुद्ध प्रेम रसखान॥<br /><br />प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।<br />या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल॥<br /><br />हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।<br />याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन॥<br /><br /><strong>-रसखान</strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-89209063356889557762008-06-24T14:31:00.001+05:302008-06-24T14:34:30.570+05:30मानुस हौं तो वहीमानुस हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।<br /><br />जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥<br /><br />पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।<br /><br />जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥<br /><br /><strong>-रसखान</strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-2915254879676335402008-02-29T01:54:00.000+05:302008-02-29T01:56:19.315+05:30तो क्या यहीं? तलब होती है बावली,<br />क्योंकि रहती है उतावली।<br />बौड़म जी ने<br />सिगरेट ख़रीदी<br />एक जनरल स्टोर से,<br />और फ़ौरन लगा ली<br />मुँह के छोर से।<br />ख़ुशी में गुनगुनाने लगे,<br />और वहीं सुलगाने लगे।<br />दुकानदार ने टोका,<br />सिगरेट जलाने से रोका-<br />श्रीमान जी!मेहरबानी कीजिए,<br />पीनी है तो बाहर पीजिए।<br />बौड़म जी बोले-कमाल है,<br />ये तो बड़ा गोलमाल है।<br />पीने नहीं देते<br />तो बेचते क्यों हैं?<br />दुकानदार बोला-<br />इसका जवाब यों है<br />कि बेचते तो हम लोटा भी हैं,<br />और बेचते जमालगोटा भी हैं,<br />अगर इन्हें ख़रीदकर<br />आप हमें निहाल करेंगे,<br />तो क्या यहीं<br />उनका इस्तेमाल करेंगे?<br /><strong><br />-अशोक चक्रधर</strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-70390024573051407882008-02-27T15:21:00.001+05:302008-02-27T15:23:48.173+05:30आलपिन कांड बंधुओ, उस बढ़ई ने <br />चक्कू तो ख़ैर नहीं लगाया <br />पर आलपिनें लगाने से <br />बाज़ नहीं आया।<br />ऊपर चिकनी-चिकनी रैक्सीन<br />अंदर ढेर सारे आलपीन।<br /><br />तैयार कुर्सी <br />नेताजी से पहले दफ़्तर में आ गई,<br />नेताजी आए<br />तो देखते ही भा गई।<br />और,<br />बैठने से पहले <br />एक ठसक, एक शान के साथ <br />मुस्कान बिखेरते हुए <br />उन्होंने टोपी संभालकर <br />मालाएं उतारीं,<br />गुलाब की कुछ पत्तियां भी <br />कुर्ते से झाड़ीं,<br />फिर गहरी उसांस लेकर <br />चैन की सांस लेकर <br />कुर्सी सरकाई<br />और भाई, बैठ गए।<br />बैठते ही ऐंठ गए।<br />दबी हुई चीख़ निकली, सह गए <br />पर बैठे-के-बैठे ही रह गए।<br /><br />उठने की कोशिश की<br />तो साथ में कुर्सी उठ आई<br />उन्होंने ज़ोर से आवाज़ लगाई-<br />किसने बनाई है?<br /><br />चपरासी ने पूछा- क्या?<br /><br />क्या के बच्चे! कुर्सी!<br />क्या तेरी शामत आई है?<br />जाओ फ़ौरन उस बढ़ई को बुलाओ।<br /><br />बढ़ई बोला-<br />सर मेरी क्या ग़लती है<br />यहां तो ठेकेदार साब की चलती है।<br /><br />उन्होंने कहा- <br />कुर्सियों में वेस्ट भर दो<br />सो भर दी<br />कुर्सी आलपिनों से लबरेज़ कर दी।<br />मैंने देखा कि आपके दफ़्तर में<br />काग़ज़ बिखरे पड़े रहते हैं<br />कोई भी उनमें<br />आलपिनें नहीं लगाता है<br />प्रत्येक बाबू<br />दिन में कम-से-कम <br />डेढ़ सौ आलपिनें नीचे गिराता है।<br />और बाबूजी,<br />नीचे गिरने के बाद तो <br />हर चीज़ वेस्ट हो जाती है<br />कुर्सियों में भरने के ही काम आती है।<br />तो हुज़ूर,<br />उसी को सज़ा दें<br />जिसका हो कुसूर।<br />ठेकेदार साब को बुलाएं<br />वे ही आपको समझाएं।<br />अब ठेकेदार बुलवाया गया, <br />सारा माजरा समझाया गया।<br />ठेकेदार बोला-<br />बढ़ई इज़ सेइंग वैरी करैक्ट सर!<br />हिज़ ड्यूटी इज़ ऐब्सोल्यूटली <br />परफ़ैक्ट सर!<br />सरकारी आदेश है<br />कि सरकारी सम्पत्ति का सदुपयोग करो<br />इसीलिए हम बढ़ई को बोला<br />कि वेस्ट भरो।<br />ब्लंडर मिस्टेक तो आलपिन कंपनी के <br />प्रोपराइटर का है<br />जिसने वेस्ट जैसा चीज़ को<br />इतना नुकीली बनाया<br />और आपको<br />धरातल पे कष्ट पहुंचाया।<br />वैरी वैरी सॉरी सर।<br /><br />अब बुलवाया गया<br />आलपिन कंपनी का प्रोपराइटर<br />पहले तो वो घबराया<br />समझ गया तो मुस्कुराया।<br />बोला- <br />श्रीमान,<br />मशीन अगर इंडियन होती <br />तो आपकी हालत ढीली न होती,<br />क्योंकि <br />पिन इतनी नुकीली न होती।<br />पर हमारी मशीनें तो <br />अमरीका से आती हैं<br />और वे आलपिनों को <br />बहुत ही नुकीला बनाती हैं।<br />अचानक आलपिन कंपनी के <br />मालिक ने सोचा<br />अब ये अमरीका से<br />किसे बुलवाएंगे<br />ज़ाहिर है मेरी ही<br />चटनी बनवाएंगे।<br />इसलिए बात बदल दी और<br />अमरीका से भिलाई की तरफ <br />डायवर्ट कर दी-<br /><br /><strong>- अशोक चक्रधर</strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-34789290.post-23053091114288015122008-02-27T15:14:00.000+05:302008-02-27T15:15:09.868+05:30बताइए अब क्या करना हैकि बौड़म जी ने एक ही शब्द के जरिए<br />पिछले पांच दशकों की <br />झनझनाती हुई झांकी दिखाई।<br />पहले सदाचरण<br />फिर आचरण<br />फिर चरण<br />फिर रण<br />और फिर न !<br />यही तो है पांच दशकों का सफ़र न !<br /><br />मैंने पूछा-<br />बौड़म जी, बताइए अब क्या करना है ?<br /><br />वे बोले-<br />करना क्या है<br />इस बचे हुए शून्य में<br />रंग भरना है।<br />और ये काम<br />हम तुम नहीं करेंगे, <br />इस शून्य में रंग तो<br />अगले दशक के<br />बच्चे ही भरेंगे।<br /><br />- <strong>अशोक चक्रधर </strong>T.Q.I.http://www.blogger.com/profile/13884025900719239186noreply@blogger.com0