क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
अनगणित उन्मादों के क्षण हैं,
अनगणित अवसादों के क्षण हैं,
रजनी सूनी घड़ियों को किन-किन से आबाद करूं मैं!
क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
याद सुखों की आंसू लाती,
दुख की, दिल भारी कर जाती,
दोष किसे दूं जब अपने से अपने दिन बर्बाद करूं मैं!
क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
दोनों करके पछताता हूं,
सोच नहीं, पर मैं पाता हूं,
सुधियों के बंधन से कैसे अपने को आज़ाद करूं मैं!
क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
- बच्चन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें