गुरुवार, सितंबर 03, 2009

प्रेम

है कौन सा वह तत्व, जो सारे भुवन में व्याप्त है,
ब्रह्माण्ड पूरा भी नहीं जिसके लिये पर्याप्त है?
है कौन सी वह शक्ति, क्यों जी! कौन सा वह भेद है?
बस ध्यान ही जिसका मिटाता आपका सब शोक है,
बिछुड़े हुओं का हृदय कैसे एक रहता है, अहो!
ये कौन से आधार के बल कष्ट सहते हैं, कहो?
क्या क्लेश? कैसा दुःख? सब को धैर्य से वे सह रहे,
है डूबने का भय न कुछ, आनन्द में वे रह रहे।
वह प्रेम है

क्या हेतु, जो मकरंद पर हैं भ्रमर मोहित हो रहे?
क्यों भूल अपने को रहे, क्यों सभी सुधि-बुधि खो रहे?
किस ज्योति पर निश्शंक हृदय पतंग लालायित हुए?
जाते शिखा की ओर, यों निज नाश हित प्रस्तु हुए?
वह प्रेम है

आकाश में, जल में, हवा में, विपिन में, क्या बाग में,
घर में, हृदय में, गाँव में, तरु में तथैव तड़ाग में,
है कौन सी यह शक्ति, जो है एक सी रहती सदा,
जो है जुदा करके मिलाती, मिलाकर करती जुदा?
वह प्रेम है

चैतन्य को जड़ कर दिया, जड़ को किया चैतन्य है,
बस प्रेम की अद्भुत, अलौकिक उस प्रभा को धन्य है,
क्यों, कौन सा है वह नियम, जिससे कि चालित है मही?
वह तो वही है, जो सदा ही दीखता है सब कहीं।
वह प्रेम है

यह देखिए, घनघोर कैसा शोर आज मचा रहा।
सब प्राणियों के मत्त-मनो-मयूर अहा! नचा रहा।
ये बूँद हैं, या क्या! कि जो यह है यहाँ बरसा रहा?
सारी मही को क्यों भला इस भाँति है हरषा रहा?
वह प्रेम है

यह वायु चलती वेग से, ये देखिए तरुवर झुके,
हैं आज अपनी पत्तियों में हर्ष से जाते लुके।
क्यों शोर करती है नदी, हो भीत पारावर से!
वह जा रही उस ओर क्यों? एकान्त सारी धार से।
वह प्रेम है

यह देखिए, अरविन्द से शिशुवृंद कैसे सो रहे,
है नेत्र माता के इन्हें लख तृप्त कैसे हो रहे।
क्यों खेलना, सोना, रुदन करना, विहँसना आदि सब,
देता अपरिमित हर्ष उसको, देखती वह इन्हें जब?
वह प्रेम है

वह प्रेम है, वह प्रेम है, वह प्रेम है, वह प्रेम है
अचल जिसकी मूर्ति, हाँ-हाँ, अटल जिसका नेम है।
वह प्रेम है

- माखनलाल चतुर्वेदी

जीवन की ढलने लगी सांझ

जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ।

बदले हैं अर्थ
शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।

सपनों में मीत
बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।
जीवन की ढलने लगी सांझ।

- अटल बिहारी वाजपेयी

क़दम मिलाकर चलना होगा

बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

- अटल बिहारी वाजपेयी

सोमवार, अगस्त 31, 2009

हम दीवानों की क्या हस्ती

हम दीवानों की क्या हस्ती,
हम आज यहाँ कल वहां चले
मस्ती का आलम साथ चला,
हम धूल उडाते जहाँ चले

आए बनकर उल्लास अभी
आँसू बनकर बह चले अभी,
सब कहते ही रह गए,
अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले?

किस ओर चले? यह मत पूछो,
चलना है, बस इसलिए चले,
जग से उसका कुछ लिए चले,
जग को अपना कुछ दिए चले।

दो बात कही, दो बात सुनी,
कुछ हँसे और फिर कुछ रोये,
छक कर सुख दुःख घूंटों को
हम एक भाव से पिए चले।

हम भिखमंगों की दुनिया में
स्वछंद लुटा कर प्यार चले,
हम एक निशानी सी उर पर,
ले असफलता का भार चले

हम मान रहित, अपमान रहित
जी भरकर खुलकर खेल चुके,
हम हँसते हँसते आज यहाँ
प्राणों की बाजी हार चले!

हम भला बुरा सब भूल चुके,
नतमस्तक हो मुख मोड़ चले,
अभिशाप उठाकर होठों पर
वरदान दृगों से छोड़ चले

अब अपना और पराया क्या?
आबाद रहे रुकने वाले!
हम स्वयं बंधे थे,
और स्वयं हम अपने बंधन तोड़ चले!

- भगवतीचरण वर्मा

खूनी हस्ताक्षर

वह ख़ून कहो किस मतलब का,
जिसमें उबाल का नाम नहीं
वह ख़ून कहो किस मतलब का,
आ सके देश के काम नहीं

वह ख़ून कहो किस मतलब का,
जिसमें जीवन न रवानी है
जो परवश होकर बहता है,
वह ख़ून नहीं है, पानी है

उस दिन लोगों ने सही-सही,
ख़ूँ की क़ीमत पहचानी थी
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में,
मांगी उनसे क़ुर्बानी थी

बोले स्वतन्त्रता की ख़ातिर,
बलिदान तुम्हें करना होगा
तुम बहुत जी चुके हो जग में,
लेकिन आगे मरना होगा

आज़ादी के चरणों में,
जो जयमाल चढ़ाई जाएगी
वह सुनो! तुम्हारे शीषों के,
फूलों से गूँथी जाएगी

आज़ादी का संग्राम कहीं,
पैसे पर खेला जाता है
यह शीश कटाने का सौदा,
नंगे सर झेला जाता है

आज़ादी का इतिहास कहीं,
काली स्याही लिख पाती है
इसको लिखने के लिए,
ख़ून की नदी बहाई जाती है

यूँ कहते-कहते वक्ता की,
आँखों में ख़ून उतर आया
मुख रक्तवर्ण हो दमक उठा,
दमकी उनकी रक्तिम काया

आजानु बाँहु ऊँची करके,
वे बोले रक्त मुझे देना
उसके बदले में भारत की,
आज़ादी तुम मुझसे लेना

हो गई सभा में उथल-पुथल,
सीने में दिल न समाते थे
स्वर इंक़लाब के नारों के,
कोसों तक छाए जाते थे

‘हम देंगे-देंगे ख़ून’
शब्द बस यही सुनाई देते थे
रण में जाने को युवक
खड़े तैयार दिखाई देते थे

बोले सुभाष- इस तरह नहीं
बातों से मतलब सरता है
लो यह काग़ज़, है कौन यहाँ
आकर हस्ताक्षर करता है

इसको भरने वाले जन को,
सर्वस्व समर्पण करना है
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन,
माता को अर्पण करना है

पर यह साधारण पत्र नहीं,
आज़ादी का परवाना है
इस पर तुमको अपने तन का,
कुछ उज्ज्वल रक्त गिराना है

वह आगे आए, जिसके तन में
ख़ून भारतीय बहता हो
वह आगे आए, जो अपने को
हिन्दुस्तानी कहता हो

वह आगे आए, जो इस पर
ख़ूनी हस्ताक्षर देता हो
मैं क़फ़न बढ़ाता हूँ वह आए
जो इसको हँसकर लेता हो

सारी जनता हुंकार उठी
‘हम आते हैं, हम आते हैं’
माता के चरणों में यह लो,
हम अपना रक्त चढ़ाते हैं

साहस से बढ़े युवक उस दिन,
देखा बढ़ते ही आते थे
और चाकू, छुरी, कटारों से,
वे अपना रक्त गिराते थे

फिर उसी रक्त की स्याही में,
वे अपनी क़लम डुबोते थे
आज़ादी के परवाने पर,
हस्ताक्षर करते जाते थे

उस दिन तारों ने देखा था,
हिन्दुस्तानी विश्वास नया
जब लिखा था रणवीरों ने,
ख़ूँ से अपना इतिहास नया

- गोपाल प्रसाद व्यास

सोमवार, फ़रवरी 16, 2009

पंद्रह अगस्त की पुकार

पंद्रह अगस्त का दिन कहता --
आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी है,
रावी की शपथ न पूरी है।।

जिनकी लाशों पर पग धर कर
आज़ादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश
ग़म की काली बदली छाई।।

कलकत्ते के फुटपाथों पर
जो आँधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के
बारे में क्या कहते हैं।।

हिंदू के नाते उनका दु:ख
सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो
सभ्यता जहाँ कुचली जाती।।

इंसान जहाँ बेचा जाता,
ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,
डालर मन में मुस्काता है।।

भूखों को गोली नंगों को
हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कंठों से जेहादी
नारे लगवाए जाते हैं।।

लाहौर, कराची, ढाका पर
मातम की है काली छाया।
पख्तूनों पर, गिलगित पर है
ग़मगीन गुलामी का साया।।

बस इसीलिए तो कहता हूँ
आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं?
थोड़े दिन की मजबूरी है।।

दिन दूर नहीं खंडित भारत को
पुन: अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक
आज़ादी पर्व मनाएँगे।।

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से
कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएँ,
जो खोया उसका ध्यान करें।।

- अटल बिहारी वाजपेयी

एक बरस बीत गया

एक बरस बीत गया
झुलसाता जेठ मास
शरद चाँदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया

सींकचों में सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अंबर तक
गूँज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया

पथ निहारते नयन
गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया

-अटल बिहारी वाजपेयी