शुक्रवार, फ़रवरी 29, 2008

तो क्या यहीं?

तलब होती है बावली,
क्योंकि रहती है उतावली।
बौड़म जी ने
सिगरेट ख़रीदी
एक जनरल स्टोर से,
और फ़ौरन लगा ली
मुँह के छोर से।
ख़ुशी में गुनगुनाने लगे,
और वहीं सुलगाने लगे।
दुकानदार ने टोका,
सिगरेट जलाने से रोका-
श्रीमान जी!मेहरबानी कीजिए,
पीनी है तो बाहर पीजिए।
बौड़म जी बोले-कमाल है,
ये तो बड़ा गोलमाल है।
पीने नहीं देते
तो बेचते क्यों हैं?
दुकानदार बोला-
इसका जवाब यों है
कि बेचते तो हम लोटा भी हैं,
और बेचते जमालगोटा भी हैं,
अगर इन्हें ख़रीदकर
आप हमें निहाल करेंगे,
तो क्या यहीं
उनका इस्तेमाल करेंगे?

-अशोक चक्रधर

बुधवार, फ़रवरी 27, 2008

आलपिन कांड

बंधुओ, उस बढ़ई ने
चक्कू तो ख़ैर नहीं लगाया
पर आलपिनें लगाने से
बाज़ नहीं आया।
ऊपर चिकनी-चिकनी रैक्सीन
अंदर ढेर सारे आलपीन।

तैयार कुर्सी
नेताजी से पहले दफ़्तर में आ गई,
नेताजी आए
तो देखते ही भा गई।
और,
बैठने से पहले
एक ठसक, एक शान के साथ
मुस्कान बिखेरते हुए
उन्होंने टोपी संभालकर
मालाएं उतारीं,
गुलाब की कुछ पत्तियां भी
कुर्ते से झाड़ीं,
फिर गहरी उसांस लेकर
चैन की सांस लेकर
कुर्सी सरकाई
और भाई, बैठ गए।
बैठते ही ऐंठ गए।
दबी हुई चीख़ निकली, सह गए
पर बैठे-के-बैठे ही रह गए।

उठने की कोशिश की
तो साथ में कुर्सी उठ आई
उन्होंने ज़ोर से आवाज़ लगाई-
किसने बनाई है?

चपरासी ने पूछा- क्या?

क्या के बच्चे! कुर्सी!
क्या तेरी शामत आई है?
जाओ फ़ौरन उस बढ़ई को बुलाओ।

बढ़ई बोला-
सर मेरी क्या ग़लती है
यहां तो ठेकेदार साब की चलती है।

उन्होंने कहा-
कुर्सियों में वेस्ट भर दो
सो भर दी
कुर्सी आलपिनों से लबरेज़ कर दी।
मैंने देखा कि आपके दफ़्तर में
काग़ज़ बिखरे पड़े रहते हैं
कोई भी उनमें
आलपिनें नहीं लगाता है
प्रत्येक बाबू
दिन में कम-से-कम
डेढ़ सौ आलपिनें नीचे गिराता है।
और बाबूजी,
नीचे गिरने के बाद तो
हर चीज़ वेस्ट हो जाती है
कुर्सियों में भरने के ही काम आती है।
तो हुज़ूर,
उसी को सज़ा दें
जिसका हो कुसूर।
ठेकेदार साब को बुलाएं
वे ही आपको समझाएं।
अब ठेकेदार बुलवाया गया,
सारा माजरा समझाया गया।
ठेकेदार बोला-
बढ़ई इज़ सेइंग वैरी करैक्ट सर!
हिज़ ड्यूटी इज़ ऐब्सोल्यूटली
परफ़ैक्ट सर!
सरकारी आदेश है
कि सरकारी सम्पत्ति का सदुपयोग करो
इसीलिए हम बढ़ई को बोला
कि वेस्ट भरो।
ब्लंडर मिस्टेक तो आलपिन कंपनी के
प्रोपराइटर का है
जिसने वेस्ट जैसा चीज़ को
इतना नुकीली बनाया
और आपको
धरातल पे कष्ट पहुंचाया।
वैरी वैरी सॉरी सर।

अब बुलवाया गया
आलपिन कंपनी का प्रोपराइटर
पहले तो वो घबराया
समझ गया तो मुस्कुराया।
बोला-
श्रीमान,
मशीन अगर इंडियन होती
तो आपकी हालत ढीली न होती,
क्योंकि
पिन इतनी नुकीली न होती।
पर हमारी मशीनें तो
अमरीका से आती हैं
और वे आलपिनों को
बहुत ही नुकीला बनाती हैं।
अचानक आलपिन कंपनी के
मालिक ने सोचा
अब ये अमरीका से
किसे बुलवाएंगे
ज़ाहिर है मेरी ही
चटनी बनवाएंगे।
इसलिए बात बदल दी और
अमरीका से भिलाई की तरफ
डायवर्ट कर दी-

- अशोक चक्रधर

बताइए अब क्या करना है

कि बौड़म जी ने एक ही शब्द के जरिए
पिछले पांच दशकों की
झनझनाती हुई झांकी दिखाई।
पहले सदाचरण
फिर आचरण
फिर चरण
फिर रण
और फिर न !
यही तो है पांच दशकों का सफ़र न !

मैंने पूछा-
बौड़म जी, बताइए अब क्या करना है ?

वे बोले-
करना क्या है
इस बचे हुए शून्य में
रंग भरना है।
और ये काम
हम तुम नहीं करेंगे,
इस शून्य में रंग तो
अगले दशक के
बच्चे ही भरेंगे।

- अशोक चक्रधर

आम की पेटी

गांव में ब्याही गई थी
बौड़म जी की बेटी,
उसने भिजवाई एक आम की पेटी।
महक पूरे मुहल्ले को आ गई,
कइयों का तो दिल ही जला गई।

कुछ पड़ौसियों ने द्वार खटखटाया
एक स्वर आया-
बौड़म जी, हमें मालूम है कि आप
आम ख़रीद कर नहीं लाते हैं,
और ये भी पता है कि
बेटी के यहां का कुछ नहीं खाते हैं।
हम चाहते हैं कि
आपका संकट मिटवा दें,
इसलिए सलाह दे रहे हैं कि
आप इन्हें पड़ौस में बंटवा दें।
हम लोग ये आम खाएंगे,
और आपकी बेटी के गुन गाएंगे।

श्रीमती बौड़म बोलीं-
वाह जी वाह !
अपने पास ही रखिए अपनी सलाह !
इन आमों को हम
बांट देंगे कैसे ?
बेटी को भेज देंगे इनके पैसे।
क्या बात कर दी बच्चों सी !

जवाब में बोला दूसरा पड़ौसी-
भाभी जी गुस्सा मत कीजिए,
देखिए ध्यान दीजिए !
ये गाँव के उम्दा आम हैं
लंगड़ा और दशहरी,
और हम लोग ठहरे शहरी।
इन आमों के तो
बाज़ार में दर्शन ही नहीं हुए हैं,
और अगर हो भी जाएं
तो भावों ने आसमान छुए हैं।
अब आपको कोई कैसे समझाए
कि अगर आपने ये आम खाए
तो मार्केट रेट लगाने पर
ये पेटी खा जाएगी पूरी तनख़ा
ऊपर से जंजाल मन का
कि बेटी को अगर भेजे कम पैसे,
तो स्वर्ग में स्थान मिलेगा कैसे ?

श्रीमती बौड़म फिर से भड़कीं
बिजली की तरह कड़कीं-
ठीक है, हमें नर्क मिलेगा मरने के बाद,
लेकिन आप चाहें
तो यहीं चखा दूं उसका स्वाद ?
पड़ौसी ये रूप देखकर डर गए,
एक एक करके अपने घर गए।

ये बात मैंने आपको इसलिए बताई,

कि बेटी की आम की पेटी
बौड़म दम्पति के लिए बन गई दुखदाई।
एक तो आमों की महक जानलेवा
फिर सुबह से किया भी नहीं था कलेवा।
हाय री बदनसीबी,
गुमसुम लाचार मियां-बीबी !
बार-बार पेटी को निहारते,
आखिर कब तलक मन को मारते !
अचानक बिना कुछ भी बोले,
उन्होंने पेटी के ढक्कन खोले।
जमकर आम खाए और गुठलियां भी चूंसीं,
एक दूसरे को समझाया-
ये सब बातें हैं दकियानूसी !
बेटी हमारी है
और ये पेटी भी हमारी है।
खुद खाएंगे
जिसको मन चाहेगा खिलाएंगे
पड़ौसियों को जलाएंगे,
और बेटी को सम्पत्ति में हिस्सा देंगे।
आमों के पैसे नहीं भिजवाएंगे।
ये आम ख़ास हैं नहीं हैं आम,
बेटी का प्यार हैं ये
और प्यार का कैसा दाम ?

-अशोक चक्रधर