मंगलवार, जून 24, 2008

काहे को ब्याहे बिदेस

काहे को ब्याहे बिदेस, अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

भैया को दियो बाबुल महले दो-महले
हमको दियो परदेस
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गैयाँ
जित हाँके हँक जैहें
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ
घर-घर माँगे हैं जैहें
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

कोठे तले से पलकिया जो निकली
बीरन में छाए पछाड़
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो हैं बाबुल तोरे पिंजरे की चिड़ियाँ
भोर भये उड़ जैहें
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

तारों भरी मैनें गुड़िया जो छोडी़
छूटा सहेली का साथ
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

डोली का पर्दा उठा के जो देखा
आया पिया का देस
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस
अरे, लखिय बाबुल मोरे

- अमीर खुसरो
इस रचना के कुछ अंशो को हिन्दी फ़िल्म उमराओ जान के लिये जगजीत कौर ने ख़्य्याम के संगीत में गाया भी है

मुक्ति की आकांक्षा

चिडि़या को लाख समझाओ

कि पिंजड़े के बाहर

धरती बहुत बड़ी है, निर्मम है,

वहॉं हवा में उन्‍हें

अपने जिस्‍म की गंध तक नहीं मिलेगी।

यूँ तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है,

पर पानी के लिए भटकना है,

यहॉं कटोरी में भरा जल गटकना है।

बाहर दाने का टोटा है,

यहॉं चुग्‍गा मोटा है।

बाहर बहेलिए का डर है,

यहॉं निर्द्वंद्व कंठ-स्‍वर है।

फिर भी चिडि़या

मुक्ति का गाना गाएगी,

मारे जाने की आशंका से भरे होने पर भी,

पिंजरे में जितना अंग निकल सकेगा, निकालेगी,

हरसूँ ज़ोर लगाएगी

और पिंजड़ा टूट जाने या खुल जाने पर उड़ जाएगी।

-सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

प्रियतम

एक दिन विष्‍णुजी के पास गए नारद जी,

पूछा, "मृत्‍युलोक में कौन है पुण्‍यश्‍यलोक

भक्‍त तुम्‍हारा प्रधान?"


विष्‍णु जी ने कहा, "एक सज्‍जन किसान है

प्राणों से भी प्रियतम।"

"उसकी परीक्षा लूँगा", हँसे विष्‍णु सुनकर यह,

कहा कि, "ले सकते हो।"


नारद जी चल दिए

पहुँचे भक्‍त के यहॉं

देखा, हल जोतकर आया वह दोपहर को,

दरवाज़े पहुँचकर रामजी का नाम लिया,

स्‍नान-भोजन करके

फिर चला गया काम पर।

शाम को आया दरवाज़े फिर नाम लिया,

प्रात: काल चलते समय

एक बार फिर उसने

मधुर नाम स्‍मरण किया।


"बस केवल तीन बार?"

नारद चकरा गए-

किन्‍तु भगवान को किसान ही यह याद आया?

गए विष्‍णुलोक

बोले भगवान से

"देखा किसान को

दिन भर में तीन बार

नाम उसने लिया है।"


बोले विष्‍णु, "नारद जी,

आवश्‍यक दूसरा

एक काम आया है

तुम्‍हें छोड़कर काई

और नहीं कर सकता।

साधारण विषय यह।

बाद को विवाद होगा,

तब तक यह आवश्‍यक कार्य पूरा कीजिए

तैल-पूर्ण पात्र यह

लेकर प्रदक्षिणा कर आइए भूमंडल की

ध्‍यान रहे सविशेष

एक बूँद भी इससे

तेल न गिरने पाए।"


लेकर चले नारद जी

आज्ञा पर धृत-लक्ष्‍य

एक बूँद तेल उस पात्र से गिरे नहीं।

योगीराज जल्‍द ही

विश्‍व-पर्यटन करके

लौटे बैकुंठ को

तेल एक बूँद भी उस पात्र से गिरा नहीं

उल्‍लास मन में भरा था

यह सोचकर तेल का रहस्‍य एक

अवगत होगा नया।

नारद को देखकर विष्‍णु भगवान ने

बैठाया स्‍नेह से

कहा, "यह उत्‍तर तुम्‍हारा यही आ गया

बतलाओ, पात्र लेकर जाते समय कितनी बार

नाम इष्‍ट का लिया?"


"एक बार भी नहीं।"

शंकित हृदय से कहा नारद ने विष्‍णु से

"काम तुम्‍हारा ही था

ध्‍यान उसी से लगा रहा

नाम फिर क्‍या लेता और?"

विष्‍णु ने कहा, "नारद

उस किसान का भी काम

मेरा दिया हुया है।

उत्तरदायित्व कई लादे हैं एक साथ

सबको निभाता और

काम करता हुआ

नाम भी वह लेता है

इसी से है प्रियतम।"

नारद लज्जित हुए

कहा, "यह सत्‍य है।"


-सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

रसखान के दोहे

प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥

कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।
अति सूधो टढ़ौ बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार॥

काम क्रोध मद मोह भय, लोभ द्रोह मात्सर्य।
इन सबहीं ते प्रेम है, परे कहत मुनिवर्य॥

बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।
सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥

अति सूक्ष्म कोमल अतिहि, अति पतरौ अति दूर।
प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥

प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।
जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान॥

भले वृथा करि पचि मरौ, ज्ञान गरूर बढ़ाय।
बिना प्रेम फीको सबै, कोटिन कियो उपाय॥

दंपति सुख अरु विषय रस, पूजा निष्ठा ध्यान।
इन हे परे बखानिये, सुद्ध प्रेम रसखान॥

प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।
या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल॥

हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन॥

-रसखान

मानुस हौं तो वही

मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।

जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥

पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।

जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥

-रसखान