है कौन सा वह तत्व, जो सारे भुवन में व्याप्त है,
ब्रह्माण्ड पूरा भी नहीं जिसके लिये पर्याप्त है?
है कौन सी वह शक्ति, क्यों जी! कौन सा वह भेद है?
बस ध्यान ही जिसका मिटाता आपका सब शोक है,
बिछुड़े हुओं का हृदय कैसे एक रहता है, अहो!
ये कौन से आधार के बल कष्ट सहते हैं, कहो?
क्या क्लेश? कैसा दुःख? सब को धैर्य से वे सह रहे,
है डूबने का भय न कुछ, आनन्द में वे रह रहे।
वह प्रेम है
क्या हेतु, जो मकरंद पर हैं भ्रमर मोहित हो रहे?
क्यों भूल अपने को रहे, क्यों सभी सुधि-बुधि खो रहे?
किस ज्योति पर निश्शंक हृदय पतंग लालायित हुए?
जाते शिखा की ओर, यों निज नाश हित प्रस्तु हुए?
वह प्रेम है
आकाश में, जल में, हवा में, विपिन में, क्या बाग में,
घर में, हृदय में, गाँव में, तरु में तथैव तड़ाग में,
है कौन सी यह शक्ति, जो है एक सी रहती सदा,
जो है जुदा करके मिलाती, मिलाकर करती जुदा?
वह प्रेम है
चैतन्य को जड़ कर दिया, जड़ को किया चैतन्य है,
बस प्रेम की अद्भुत, अलौकिक उस प्रभा को धन्य है,
क्यों, कौन सा है वह नियम, जिससे कि चालित है मही?
वह तो वही है, जो सदा ही दीखता है सब कहीं।
वह प्रेम है
यह देखिए, घनघोर कैसा शोर आज मचा रहा।
सब प्राणियों के मत्त-मनो-मयूर अहा! नचा रहा।
ये बूँद हैं, या क्या! कि जो यह है यहाँ बरसा रहा?
सारी मही को क्यों भला इस भाँति है हरषा रहा?
वह प्रेम है
यह वायु चलती वेग से, ये देखिए तरुवर झुके,
हैं आज अपनी पत्तियों में हर्ष से जाते लुके।
क्यों शोर करती है नदी, हो भीत पारावर से!
वह जा रही उस ओर क्यों? एकान्त सारी धार से।
वह प्रेम है
यह देखिए, अरविन्द से शिशुवृंद कैसे सो रहे,
है नेत्र माता के इन्हें लख तृप्त कैसे हो रहे।
क्यों खेलना, सोना, रुदन करना, विहँसना आदि सब,
देता अपरिमित हर्ष उसको, देखती वह इन्हें जब?
वह प्रेम है
वह प्रेम है, वह प्रेम है, वह प्रेम है, वह प्रेम है
अचल जिसकी मूर्ति, हाँ-हाँ, अटल जिसका नेम है।
वह प्रेम है
- माखनलाल चतुर्वेदी