मंगलवार, जून 24, 2008

मुक्ति की आकांक्षा

चिडि़या को लाख समझाओ

कि पिंजड़े के बाहर

धरती बहुत बड़ी है, निर्मम है,

वहॉं हवा में उन्‍हें

अपने जिस्‍म की गंध तक नहीं मिलेगी।

यूँ तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है,

पर पानी के लिए भटकना है,

यहॉं कटोरी में भरा जल गटकना है।

बाहर दाने का टोटा है,

यहॉं चुग्‍गा मोटा है।

बाहर बहेलिए का डर है,

यहॉं निर्द्वंद्व कंठ-स्‍वर है।

फिर भी चिडि़या

मुक्ति का गाना गाएगी,

मारे जाने की आशंका से भरे होने पर भी,

पिंजरे में जितना अंग निकल सकेगा, निकालेगी,

हरसूँ ज़ोर लगाएगी

और पिंजड़ा टूट जाने या खुल जाने पर उड़ जाएगी।

-सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

2 टिप्‍पणियां:

  1. Kaivta padh kar bachpan yaad aa gaya aur wo bhavnayein bhi waisi hi jaag gayi jaise bachpan mein jagti thi.. good work

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  2. That precisely was my idea behind this blog.
    There were memories of so many good poems that I thought I should capture them somewhere... Thanks for visiting the blog and for your comment.

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